Friday 12 June 2015

भारत की स्वतंत्रता, द्वितीय विश्वयुद्ध व अंग्रेज विचारधारा

विश्व युद्ध के आरंभ होने के बाद से ब्रिटेन ने भारतीयों की भर्ती सेना में बढ़ा दी थी। 1942 की शुरुआत तक यह संख्या दस लाख सैनिकों तक पहुँच चुकी थी। मेजर जनरल लोकहार्ट ने अपनी एक रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया था क़ि कांग्रेस पार्टी का प्रभाव कितना है यह आंकलन करना मुश्किल है, हालाँकि उनका मानना था कि सेना अंग्रेजों को अपना हित रक्षक जरूर मानती है।
इंग्लैंड में भारतीयों को आजाद किया जाय यह भावना जोर पकड़ चुकी थी। पर भारत के अंग्रेज शासक तत्कालीन वायसराय हिंदुत्व के भयंकर विरोधी थे। वे इसे अलोकतांत्रिक तथा नाजी विचारधारा के समान मानते थे। उन्होंने यह दुर्विचार इसलिए प्रस्तावित किया ताकि भारत को यदि स्वतंत्रता देनी भी पड़े तो उसे अपने अधिराज्य के रूप में कॉमन वेल्थ में रखा जाए और ब्रिटेन की भारत में संप्रभुता बनी रह सके।
अंग्रेज अपनी इस आशा को पूरी करने के लिए रजवाड़ों, कमजोर वर्गों, मुसलमानों, सिखों तथा अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों का मुद्दा उठाता था। हालाँकि राष्ट्र संघ के दवाब के कारण वो भारत की आजादी का एक पेचदार घोषणापत्र बनाने की तैयारी में भी जुटा था। सिंगापुर की हार ने उसके हाथ पाँव फूला दिए थे
यद्यपि ऐसे प्रस्ताव अंग्रेज के पास मौजूद थे जिसे दृष्टिगोचर रख भारत एक रह सकता था, परंतु भारत को तत्काल आजादी न देने के लिये चर्चिल ने अमेरिकन राष्ट्रपति रूज़वेल्ट को मुसलमान के मत को बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया तथा, यह भय दिखाया कि इससे सेनाओं में बगावत हो सकती थी।
चांग काई शेक ने उधर चर्चिल को यह सन्देश दिया कि, उन्हेँ संदेह है कि यदि भारत की आजादी की घोषणा तत्काल नहीं की गयी तो विश्व युद्ध में भारतीय सहयोग मिल भी पायेगा कि नहीं। उन्होंने साफ साफ कहा कि अंग्रेज शासन मुसलमानों के पक्ष को बढ़ा चढ़ा कर रख रहा है। चांग का यह पक्ष अमेरिका को चीनी विदेश मंत्री डॉ. टी वी सांग ने बता दिया था।

भारत की स्वतंत्रता व द्वितीय विश्वयुद्ध

भारत में चांग की शेक का आगमन 5 फरवरी 1942 की प्रातः को लाशिओ से हुआ। वे चीन के तत्कालीन राष्ट्रपति थे।उन के भारत आने का कारण विभिन्न राजनैतिक दलों का समर्थन विश्व युध्द में संयुक्त राष्ट्र के पक्ष में प्राप्त करना था। रूज़वेल्ट और चर्चिल के बीच निरंतर इन सभी बातो को लेकर चर्चा हो रही थी। चांग नेहरू को बहुत मानते थे। वे चीन के राष्ट्रवादी थे तथा माओ के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी के धुर विरोधी थे।
21 फऱवरी 1942 को एक सन्देश कलकत्ता में जारी किया जिसमे उन्होंने चीन और भारत के लोगों के आक्रमण के एकमत से विरोधी होने की बात कही। उन्होंने कहा की चीन और भारत के बीच 3000 किलोमीटर की साझी सीमा है। इन दोनों राष्ट्रों के बीच ऐतिहासक रूप से कोई युद्ध नहीं हुआ। चांग की दृष्टि में ये दोनों देशों के शांतिप्रिय होने का पर्याप्त प्रमाण था। चीन और भारत के लोग विश्व की आधी आबादी थे। चांग ने अपने सन्देश में कहा की चीन और भारत का हित ही नहीं अपितु भविष्य भी साझा है। आक्रमण विरोधी संयुक्त राष्ट्र भारत के लोगों को स्वेच्छा से मुक्त विश्व के अस्तित्व के संघर्ष में साथ देने का दायित्व निभाने की भूमिका के निर्वहन की अपेक्षा रखता था। उनके अनुसार इस सँघर्ष में आक्रमण विरोधी देशों की हार का परिणाम विश्व को सौ साल के लिए भुगतना होगा। ये हार एक बड़ी मानवीय त्रासदी होगी।
उन्होंने जापानियों की नृशंषता का लोमहर्षक चित्रण किया। अपने सन्देश को पूरा करते हुए उन्होंने अपने साथी ब्रिटेन से आशा करी कि वे भारतियों को बिना मांग के संपूर्ण राजनैतिक सत्ता सौंप देंगे।

भारत की स्वतंत्रता में द्वितीय विश्वयुद्ध की भूमिका

भारत की स्वतंत्रता में द्वितीय विश्वयुद्ध की एक बड़ी भूमिका रही है। भारत में युद्ध को लेकर चर्चाओ को बाजार गर्म था। जिन्ना की मुस्लिम लीग और कांग्रेस की खाई बोरदोलि के अधिवेशन के बाद और गहरी हो गयी थी। अमेरिका ब्रिटेन पर भारत की आजादी को लेकर दवाब बना रहा था। उसे अंग्रेजी साम्राज्यवाद नापसंद था। 1 जनवरी 1942 को वाशिंगटन में सर जी. एस. वाजपेयी, जो गवर्नर जनरल के अमेरिका में प्रतिनिधि थे, ने भारत की ओर से संयुक्त राष्ट्र संघ के संयुक्त घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर कर अटलांटिक चार्टर को संयुक्त कार्यक्रम घोषित करने का प्रपत्र जारी किया था । जापानी विश्व युद्ध के मोर्चों में आगे बढ़ रहे थे।

Monday 8 June 2015

GLIMPSES OF INDIA’S FREEDOM: #6



The Marquees of Linlithgow to Mr. Amery, 31st January 1942

Mudaliar broached with me today the question of Constitutional position. He says reflection has convinced him Congress has no intention of taking the least responsibility of Government at this awkward turn. Muslim League is like minded. We should therefore make no change at the Centre.

Sunday 7 June 2015

GLIMPSES OF INDIA’S FREEDOM: #5

The Indian Political Situation Memorandum for Secretary of State for India (dated 28 January 1942)

Yet this fundamental issue has been throughout ignored by the Congress Party which, in spite of efforts to please the Moslem elements in its facade, is essentially a Hindu party in its ingrained conviction that it is the natural heir to the British Government in India and entitled to take over both control of legislative and executive powers, unfettered by any limitations save such “safeguards” for the “minorities” as it has professed to be willing to grant. 

…Meanwhile, the experience of Congress Government in the Provinces and of the centralised dictatorship of the Congress “High command” finally decided the Moslems now increasingly coming together in the Muslim League, to reject entirely any system of government for India as a whole based on a Parliamentary majority executive.

GLIMPSES OF INDIA’S FREEDOM: #4



Note on the Tour of the Reforms Commissioner from 8th November to 7th December 1941 to Madras, Orissa, Assam, Bengal, Bihar


The demand for separate electorates from smaller minorities appears to be growing along with their political consciousness. The idea that was pressed on me by representatives of the Justice Party in Madras that non-brahmins should have separate electorates to save them from domination by the brahmins is ridiculous in theory, and the answer in practice is obviously that The Justice Party should improve its organisation and leadership. Majority Hindu opinion is of course, strongly against separate electorates, and it is more often than not that an\y Hindu with whom one talks will begin his observations on the constitutional problem by blaming everything on separate electorates. Nevertheless, there is a widespread recognition encouraged by the official policy of the Congress, that if the Muslims insist on having separate electorates, they must have them.

- Shridev Sharma